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त्रिविधायामि उपचार पद्यति ही वास्तविक आयुर्वेद है।

आयुर्वेद-चिकित्सा एवं ज्योतिष का विशेष सम्बन्ध है। यही कारण था कि पूर्वसमय में एक वैद्य को ज्योतिषीय ज्ञान होना अनिवार्य हुआ करता था। तब वह  रोग की प्रकृति, रोग का प्रभाव क्षेत्र, रोग के प्रकट होने की अवधि तथा पूर्व या वर्तमान जन्म कृत पापो से उत्पन्न रोग आदि रोग के समग्र कारणो का भली-भांति विश्लेषण किया करता था। तथा उसी के अनुरूप औषधि देने से एवं रोग के मूल कारणो के उपाय, प्रायिश्चित आदि के करने से, रोगी को विशेष लाभ प्राप्त होता था। किन्तु आज के समय में आयुर्वेद की प्राचीन एवं वास्तविक त्रिविधायामि पद्यति से रोगियो का उपचार न के बराबर ही किया जा रहा है। जब की यह ही आयुर्वेद की आत्मा है। एवं औषधिया भी शास्त्रीय विधि विधान से निर्मित-संपूजित होकर ही प्रभावकारी बनती है। अतः हम वेदादि मंत्रो से औषधियो को संपूजित करते हुये, पूर्णतः शास्त्रीय रीति से उन्हे निर्मित करते है। रोगी की कुंडली में रोगो की स्थिति, कारण एवं निदान आदि का विश्लेषण हमारे विद्वान ज्योतिषि द्वारा किया जाता है। तब औषधि उपचार के साथ साथ , आयुर्वेद में वर्णित दैवीय उपचार को भी प्रधानता के साथ लागू किया जाता है। जिसके फलस्वरूप अधिकाधिक लाभ रोगी को मिलता है, साथ ही अन्य भी लाभ प्राप्त होते है। आयुर्वेद भगवान से ही प्रकट हुआ है। अतः अगर समस्त विधि का पालन किया जाये तो हमारा दृढ़ विश्वास है, आप एक बार उपयोग करके देख ले, अतिशय लाभ आप स्वयं अनुभव करेंगे। एवं जटिल रोगो की अङ्ग्रेज़ी दवाओ के दुष्प्रभाव से बचते हुये, दीर्घायुत्व को प्राप्त करेंगे।

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श्री सनातन आयुर्वेद शाखा

महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत एवं वाग्भट्ट जिंहौने कि आयुर्वेद ग्रंथ लिखे , उनके अनुसार भी आयुर्वेद के मूल प्रवर्तक साक्षात भगवान ही है । अतः ऐसा कोई असाध्य रोग नहीं है, जिसमें कि आयुर्वेदिक औषधिया लाभ न करे। 

आथर्वणी उपचार प्रक्रिया के अंतर्गत अथर्ववेद के मंत्रो के द्वारा जो औषधिया पूजित होती है, तभी विशेष लाभ पहुंचाती है।

चिकित्सा की सफलता इसमें होती है कि, व्यक्ति के ग्रह-नक्षत्रो की स्थिति को देखते हुये, उसे विधि से तैयार अभिमंत्रित औषधिया दी जाये साथ ही दैवउपायो से  मूलरोग के कारण का ही निवारण कर दिया जाये। उसी रीति का अनुसरण करते हुये हम भी आयुर्वेद में वर्णित इन्ही तीन विधियो से रोग-प्रबन्धन करते है। 

  • दैवव्यपाश्रया विधि
  • युक्तिव्यपाश्रया विधि
  • सत्वावजय विधि