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Ayurvedic Approach To Know Your Nature – निरोग-विद्या

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Ayurvedic Approach To Know Your Nature sachinkmsharma February 6, 2020
Ayurvedic Approach To Know Your Nature
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नार्थार्थं नापि कामार्थमथ भूत दया प्रति ।
वर्तते याश्रिचिकित्सायां स सर्वमतिवर्तते ।।

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जो चिकित्सक अर्थ एवं काम ( मनोरथ ) की लालसा छोड़कर प्राणियों के प्रति दया की भावना रखकर चिकित्सा कार्य करता है, वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ।।

Table of Contents

रोंगों के सात भेद :-

1. सहजन्य रोग ( Hereditary ) – यह रोग पितृजन्य, मातृ-जन्य, शुक्र-आर्तवदुष्टि से उत्तन्न होते है,
जैसे — कुष्ठ , अर्श , प्रमेह आदि ।
2. गर्भजन्य रोग ( Congenital ) :- यह रोग माता के कुपोषण या गलत आहार-विहार से होते हैं , जैसे- कुबड़ापन , पंगुत्व , पिंगलता आदि ।
3. जताजन्य रोग – अपने से किये हुए मिथ्या आहार- विहार , भूखे-प्यासे या अधिक खाने से रोग होता है ।
4. पीड़ाजन्य रोग ( Accidental or Traumatic ) :- चोट , अस्थिभंग , प्रहार , क्रोध , शोक , भय आदि से मानसिक और शारीरिक रोग होते है ।
5. कालजन्य रोग :- शीत , गर्मी , वर्षा आदि से उत्त्पन्न होते है ।
6. प्रभावजन्य रोग :- देवता और गुरु की आज्ञा का उल्लंघन , अभिशाप के कारण रोग ।
7. स्वाभावजन्य रोग ( Natural ) :- भूख , प्यास , वृद्धावस्था आदि स्वाभाविक रोग ।
***

दोषानुसार रोग सात प्रकार के होते हैं :-

1. वातज 2. पित्तज 3. कफज 4. वातपित्तज 5. वातकफ़ज 6. कफ़पित्तज 7. सन्निपातज ।
शरीर में तीन तरह के दोष पाए जाते है वायु , पित्त और कफ ।
‘ दूषयन्ति मनः शरीरं च इति दोषाः ‘ ।
वात पित्त कफ
अवस्था- वृद्धावस्था युवावस्था वाल्यावस्था
शरीर-नाभि के नीचे, नाभि के ऊपर, ह्रदय के ऊपर
दिन- 2Pm-6 Pm ,10Am-2Pm, 6-10 Am
रात्रि- 2Am-6 am, 10Pm-2Am, 6-10 Pm

इन तीनों दोषों के पांच-पांच भेद बताये गए हैं , जैसे – वायु के पांच भेद इस प्रकार है –

  • प्राणवायु :- निवास- शिर में , कंठ से उर के बीच विचरण करती है ।

कर्म – बुद्धि, ह्रदय , मन , इन्द्रिय तथा धमनी को धारण करती है , थूकना , छींकना , उद्दगार , साँस लेना व छोड़ना तथा अन्न को निगलना आदि कर्म है ।
*उदानवायु :- निवास-ह्रदय , कंठ व नाभि में संचरण करना ।
कर्म – बोलना , उद्द्यम करना , उर्जा , बल , वर्ण , बुद्धि , धैर्य , स्मृति, मन की क्रियाशीलता आदि कर्म है।

  • व्यानवायु :- निवास-ह्रदय ,पूरे शरीर में संचरण ।

कर्म – शरीर के अंगों में गतिशीलता , अंगों का प्रसारण ,पलकों को बंद करना , जम्भाई लेना , अच्छे-बुरे रसों का अनुभव करना , पसीना व रक्त का स्राव , गर्भाधान , अन्न को धातु रूप में परिवर्तन ।

  • समानवायु :- जठराग्नि के समीप रहती है व उदीप्त कराती है ।

कर्म – आमाशय व छोटी आंत में वातादि दोषों , मलों, शुक्रों, आतर्व जल का वहन करता है, इसकी सहायता से पाचन , धातुओं का प्रथक करण ,मल को नीचे ले जाना आदि क्रियाएं है ।

  • अपानवायु :- स्थान- श्रोणि आदि में । वस्ति, श्रोणि , मेढ्र, वृषण , वंक्षण एवं उरु में संचरण करता है । कर्म – मल, मूत्र , वीर्य , आतर्व , गर्भ को निकलने आदि की क्रिया करता है ।

वायु से अस्सी रोग होते है :-

जैसे – नाख़ून का फटना,
विवाई, पैरों में दर्द ,
पाद्भ्रंस,
पैरों का सुन्न होना ,
पैरों की अस्थि में पीड़ा ,
संधियो में अकडन ,
साइटिका , पंगुत्व ,
गुदा में पीड़ा ,
वृषण पीड़ा ,
कमरदर्द ,
कुबड़ापन ,
बौनापन ,
पीठ अकड़ना ,
पेट में ऐठन ,
घबराहट ,
ह्रदय-पीड़ा ,
छाती का दर्द ,
वक्ष पीड़ा ,
हाथों में पीड़ा ,
गर्दन दर्द ,
जबड़ों में दर्द ,
ओष्ठ फटना ,
दांतों का दर्द ,
गूंगापन ,
वाणी दोष ,
असम्बद्ध बोलना ,
मुंह में कसैलापन,
मुख सुखाना ,
गुदा का बहार आना ,
लिंग-स्तब्धता ,
डकार आना व पेट फूलना ,
गर्दन में अकडन ,
बोलने में कठिनाई ,
रस व गंध का ज्ञान ना होना,
वहरापन ,
पलकों की स्तब्धता ,
नेत्र रोग ,
कनपटी वेदना ,
रुसी होना,
सिर दर्द ,
लकवा ,
पोलीपिलिजिया ,
झटका आना ,
थकावट ,
चक्कर आना ,
कम्पन्न ,
जंभाई ,
रूखापन ,
अप्रसन्नता ,
नींद ना आना ,
अस्थिर चित्त आदि ।

वात प्रकृति वाले व्यक्ति के लक्षण :-

शारीरिक गठन व त्वचा- शरीर प्रायः रुखा, फटा-कटा , दुबला-पतला , पैरों में विवाई फटना , हथेलियाँ व ओठ फटना , अंग सख्त ,शरीर पर नसों का उभार ,
सर्दी सहन ना होना ;
वर्ण – काला रंग ,
केश- काले ,रूखे छोटे केश , कम केश दाढ़ी मूंछ का रुखा होना ;
नाख़ून- अँगुलियों के नाखूनों का रुखा व खुरदरा होना ;
नेत्र- मैला ,
जीभ – मैली ,
आवाज- कर्कश व भारी आवाज , गंभीरता रहित स्वर ,अधिक बोलना ; मुंह- मुंह सूखता है ; भूख- मुंह का स्वाद फीका व ख़राब होना ; प्यास- कभी कम कभी ज्यादा ; मल- रुखा , झाग युक्त, टूटा हुआ , कम सख्त ,कब्ज प्रवृत्ति ;
मूत्र – मूत्र पतला , गन्दला , रूकावट की शिकायत होना ; पसीना- कम व बिना गंध वाला पसीना ;
नींद- कम आना , जम्हाई आना ,सोते समय दांत किटकिटाना ;
स्वप्न – सोते समय आकाश में उड़ने के स्वप्न देखना ;
चाल – तेज ; पसंद – सर्दी बुरी लगती है , शीतल बस्तुयें अप्रिय लगती है ;
नापसन्द- गर्म बस्तुओं की इच्छा होना , मीठे, खट्टे ,नमकीन प्रदार्थ प्रिय लगते है ।

  • * * नाडी पहचान :- टेढ़ी-मेढ़ी ( सांप के चाल के समान ) तेज व अनियमित गति वाली प्रतीत होती है ।
  • * ध्यान दें :- गर्मी के दिनों में वात का संचय , वर्षा में वात का प्रकोप व सर्दी में इसका इलाज हितकर है ।
  • * इलाज :- सुबह सरसों की तेल की मालिस करें , कसैली वस्तुओं का सेवन करें , गहरे रंग के पत्तो की शब्जी खाएं व पेट साफ रखें

पित्त के पांच भेद , स्थान एवं कर्म :-

1. पाचक पित्त :- अमाशय तथा पक्वाशय के मध्य होता है , यह पित्त अन्न को पचाता है ।
2. रज्जक पित्त :- यह आमाशय में रस नामक धातु को पैदा करता है ।
3. साधक पित्त :- ह्रदय में स्थित होता है , यह बुद्धि , मेधा , अहंकार , उत्साह , अभीष्ट को सिद्ध करता है ।
4. आलोचक पित्त :- आँखों में स्थिर होता है देखने की शक्ति देता है ।
5. भ्राजक पित्त :- यह त्वचा में होता है तथा स्नान , मालिस को पचाता है ।

पित्त से चालीस प्रकार के रोग होते है :-

जैसे- अधिक गर्मी लगना , शरीर के अंगों में जलन होना , त्वचा रोग , अम्ल बनना ,
खट्टी डकारें , त्वचा पर चकत्ते पड़ना , हाईपरथिमिया , शरीर में शिथिलता ,
रक्त में सडन , दुर्गन्ध युक्त पसीना ,
पीलिया रोग , कडुवा मुंह , मुहं से दुर्गन्ध , वदबुदर वायु , अधिक प्यास , अतृप्ति ,
मुख के रोग , गले का पकना ,
मांस का सड़ना , त्वचा फटना ,
नेत्र का पकना ( conjunctivitis ) , गुदापाक , मूत्र मार्ग का पाक ,
अँधेरा छाना या मूर्छा आना )आदि ।

पित्त प्रकृति वालों के लक्षण :-

शारीरिक गठन व त्वचा – नाजुक शरीर , शिथिल त्वचा , त्वचा पीली एवं नर्म होती है , फुंसियाँ व तिलों से भरी हुई ,
हथेलियाँ , जीभ, कान, लाल रंग के होते हैं , गर्मी वर्दास्त नहीं होती है ;
वर्ण- पीला; केश – बालों का छोटी उम्र में झड़ना व सफ़ेद होना , रोम कम होना ;
नाख़ून व जीभ- लाल ;
आवाज – स्पष्ट श्रेष्ठ वक्ता ;
मुंह – कंठ सूखता है ;
स्वाद- मुंह का स्वाद कडुवा होना ,कभी-कभी खट्टा होना , मुंह व जीभ में छाले होना ;
भूख – पाचन शक्ति अधिक होती है , अधिक खाने वाला ।
प्यास – प्यास अधिक लगना ;
मल- मल पतला व पीला होना , जलयुक्त होना या दस्त की प्रवृत्ति ।
मूत्र- मूत्र में कभी जलन कभी पीलापन होना ; पसीना- कम पसीना , दुर्गन्धयुक्त व गर्म पसीना ;
नींद- निद्रा कम आना ; स्वप्न- अग्नि , सोना , तारा ,सूर्य, चन्द्रमा , चमकीले पदार्थ देखना ; चाल- धीमी किन्तु लक्ष्य की तरफ अग्रसर ; पसंद- शीतल वस्तुएं , ठन्डे जल से स्नान , फूल-माला प्रिय लगते है ;
नापसंद- गर्मी बुरी लगना ,धूप-आग पसंद नहीं , गर्म तासीर का भोजन पसंद नहीं ,।

  • * नाड़ी पहचान :- कूदती हुई ( मेढक या कौवा की चाल वाली ), उत्तेजित व भारी नाड़ी होना ।

ध्यान दें :-

  • * वर्षा में पित्त का संचय , शरद ऋतू में पित्त का प्रकोप व हेमंत ऋतू में इसका इलाज हितकर है ।
  • * इलाज :- गाय का घी ।

जीरा , छोटी-बड़ी इलाइची , सौंफ , काला-नमक आदि ।

कफ के पांच भेद ,

स्थान एवं कर्म :-
1. अवलम्बक कफ :- यह कफ वक्षस्थल में अपनी शक्ति से त्रिकास्थि का, आहार रस से शेष कफ स्थानों का स्वस्थान में रहकर जल-कर्म द्वारा अवलम्बन करता है ।
2. क्लेदक कफ :- आमाशय में स्थित अन्न समूह का किलन्न ( टुकडे ) करता है ।
3. बोधक कफ :- यह रसों में स्थित कफ का मधुरादि रसों का बोध कराता है ।
4. तर्पक कफ :- यह शिर में रहता है , यह चक्षु आदि इन्द्रियों का तर्पण करता है ।
5. श्लेषक कफ :- यह पर्वों ( संधियों ) में रहता है यह अस्थि संधियों को चिकना रखता है ।

कफ से बीस प्रकार के रोग होते है –

जैसे :- खाना खाने की इच्छा ना होना , उन्घाई ,
निद्राधिक्य ,
त्वचा में सफेदी दिखना ,
तन्द्रा ,
शरीर में भारीपन व आर्द्रता होना,
आलस्य ,
मीठेपन की प्रतीति ,
लालस्राव का आना, बलक्षय ,
गलकंड ,
ओबेसिटी ,
मन्दाग्नि ,
उर्टिकारिया आदि ।

कफ प्रकृति वाले व्यक्ति के लक्षण :-

शारीरिक गठन व त्वचा – सुडौल अंग, चिकना, सुन्दर , पानी सी नम, मोटा शरीर, सर्दी वर्दास्त नहीं ;
वर्ण- गोरा रंग ; केश- घने-घुंघराले काले केश ; नाख़ून- चिकने ;
आँखें-सफ़ेद ;
जीभ- सफ़ेद रंग के लेप वाली ;
आवाज- मधुर बोलने वाला ;
मुंह – मुंह या नाक से अधिक बलगम निकलता है ;
स्वाद- मुंह का स्वाद मीठा-मीठा रहना व कभी-कभी लार निकलना ;
भूख- भूख कम लगती है ,
मन्दाग्नि ; प्यास – प्यास कम लगती है ;
मल- सामान्यतः ठोस मल , चिकनापन या आंव का आना ;
मूत्र- सफ़ेद , अधिक मूत्र , चिकना व गाढ़ा होना ;
पसीना – सामान्य पसीना ,ठंडा पसीना ,
स्वप्न- नदी , तालाब, समुद्र जलाशय देखना ; चाल- धीमी, स्थिर एक जैसी चाल;
पसंद- गर्म भोजन व पेय पदार्थ , गर्म, चिकने , चरपरे और कडुवे पदार्थ की इच्छा ;
नापसंद – सर्दी बुरी लगती है कष्ट देती है , धूप व हवा अच्छी लगती है , नम मौसम में भय लगता है ।

  • * नाड़ी की पहचान :- मंद-मंद ( कबूतर या मोर की चाल वाली ), कमजोर व कोमल नाड़ी ।

ध्यान दें :-
शिशिर ऋतू में कफ का संचय , वसंत में प्रकोप व गर्मी में इसका इलाज हितकर है ।

  • * इलाज :- कफ का इलाज शहद से करें ।

शहद के साथ सोंठ , पिप्पली , अदरक , हल्दी , तुलसी , कालीमिर्च , दालचीनी आदि ।

पृथक-पृथक त्रिदोषों से 63 तरह के रोग होते हैं ।

धातु :- धातुयें सात प्रकार की होेती हैं ।
1. रस- तृप्तिकरण , धातु पुष्टिकरण
2. रक्त- ओज वृद्धिकरण , प्राणधारण
3. मांस- अस्थि व मांस का मिट्टी की भांति लेप
4. मेद- स्नेह- शरीर और नेत्रादि की स्निग्धता
5. अस्थि – धारण – शरीर का कंकाल
6. मज्जा- पूरण – अस्थियों को पूरक श्लेषमा
7. शुक्र- गर्भोत्पादन के लिए ओज धातु

रस छः प्रकार के होते है ।

  • प्रत्येक रस का सेवन नियमित एवं सीमिति मात्रा में किया जाता है , अधिक या कम मात्रा में सेवन से विमारियां पैदा होती है ।

1. मधुर ( Sweet चीनी ) :- मन में तृप्ति मिलती है ।
*यह वात और पित्त का शमन करता है , जबकि कफ को विकृत करता है ।

  • धातु एवं ओज की वृद्धि करते हुए ज्ञानेन्द्रियों को स्वच्छ रखता है ।
  • इस रस को अधिक सेवन करने से आलस्य व कम सेवन करने से कमजोरी महसूस होती है ।

2. अम्ल ( खट्टा Acid नीबूं ) :- अधिक सेवन से मुंह व गले में जलन उत्पन्न करता है ।

  • यह मुंह से लार को उत्पन्न करता है ।
  • यह वात का शमन करता है ,तथा पित्त एवं कफ को विकृत करता है ।

3. लवण ( नमक /पटु Salt ):- यह मुँह में डालते ही घुलता है , इसका अधिक सेवन जलन पैदा करता है ।

  • यह वात का शमन करता है ।
  • जबकि पित्त एवं कफ़ को विकृत करता है ।
  • लवण की अधिकता से नपुंसकता , बांझपन , रक्तपित्त आदि विमारियाँ होती है ।
  • लवण के कमी से भोजन में अरुचि व पाचन क्रिया को प्रभावित करता है ।

4. कटु ( कड़वा pungent करेला ,नीम ):-

  • यह जीभ के संपर्क में आते ही कष्ट पहुँचाता है ।
  • इसके संपर्क से आँखों व मुँह से जल स्राव होता है ।
  • यह कफ का शमन करता है परन्तु वात व पित्त को विकृत करता है ।
  • मेथी , मंगरैला , अजवाइन आदि ।

5. तिक्त ( उषण Bitter मिर्च ):- यह जीभ को अप्रिय होता है , स्वाद में एकाधिकार होने के कारण इसकी उपस्थिति में अन्य स्वाद का पता नहीं लगता है ।

  • यह वात को विकृत करता है जबकि पित्त व कफ का शमन करता है ।
  • तिक्त रस हल्दी में भी पाया जाता है ।

6. कषाय( कसैला Astringent आंवला):-

  • इसके सेवन से जीभ की चिपचिपाहट दूर होता है ।
  • यह अन्य रसों को अनुभव नहीं करने देता है ।
  • यह पित्त एवं कफ को शमन करता है परन्तु वात को विकृत करता है ।

रसों का दोषों से सम्बन्ध :-

दोष लाभकारी रस प्रकोप रस
वात -मधुर,अम्ल ,लवण; कटु ,तिक्त , कषाय
पित्त- तिक्त, कषाय, मधुर; अम्ल, लवण , कटु
कफ- कटु, तिक्त, कषाय ; मधुर, अम्ल, लवण

  • * रस महाभूत

1. मधुर रस पृथ्वी , जल
2. अम्ल रस पृथ्वी , अग्नि
3. लवण रस जल , अग्नि
4. तिक्त रस वायु, आकाश
5. कटु रस वायु , अग्नि
6. कषाय रस वायु , पृथ्वी