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परिचय – निरोग-विद्या

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परिचय sachinkmsharma November 30, 2024

आयुर्वेद-चिकित्सा एवं ज्योतिष का विशेष सम्बन्ध है। यही कारण था कि पूर्वसमय में एक वैद्य को ज्योतिषीय ज्ञान होना अनिवार्य हुआ करता था। जिससे कि वह रोग की प्रकृति, रोग का प्रभाव क्षेत्र, रोग के प्रकट होने की अवधि तथा पूर्व या वर्तमान जन्म कृत पापो से उत्पन्न रोग आदि समग्र कारणो का भली-भांति विश्लेषण किया करता था। तथा उसी के अनुरूप औषधि देने से एवं रोग के मूल कारणो के उपाय आदि के करने से, रोगी को विशेष लाभ प्राप्त होता था। किन्तु आज के समय में दैवव्यपाश्रय चिकित्सा रोगी तक नहीं पहुँच पाती। 

द्वादश राशियो, नवग्रहो, सत्ताईस नक्षत्रो के द्वारा व्यक्ति के रोग के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। जन्म चक्र में स्थित प्रत्येक राशि, ग्रह आदि शरीर के भिन्न भिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करते है। कई बार,  जिस ग्रह के दूषित प्रभाव के कारण संबन्धित अंग पर रोग का प्रभाव रहता है। वहाँ ग्रहदान तथा जप आदि के द्वारा, सामान्य औषधि सेवन से,  रोग का शमन हो जाया करता है। 

जैसे कि , सप्तम भाव , तुला राशि , वायु तत्व ये गुर्दे, मूत्राशय, वस्ति, डिंब, गर्भाशय नलिकाओ आदि अंगो का बोध कराते है, इनसे संभावित रोग कमर दर्द, मधुमेह, पथरी , वृक्कशोथ आदि होते है। तो विधिपूर्वक औषधि के साथ ज्योतिषीय विश्लेषण , जन्मान्तरीय कारण विश्लेषण करते हुये , आयुर्वेद की त्रिविध उपचार पद्यति को अपनाया जाये तो , सामान्य की अपेक्षा कई गुना अधिक लाभ होता  है। 

जैसे कि अत्यंत मारक ग्रह की दशा हो और व्यक्ति केवल औषधि सेवन करता रहे तो उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। किन्तु यदि इस गणित को समझते हुये, विधिसहित औषधि के साथ साथ , लघुमृत्युंजय-जप किया या कराया जाये तो इससे मारक ग्रह शांत होता है, और औषधि का लाभ विशेषता से प्राप्त होने से , मृत्यु तक टल जाया करती है। 

इसके अतिरिक्त यदि एक साथ कई ग्रहो का दूषित प्रभाव रोग की उत्पत्ति का कारण हो और बढ़ता जा रहा हो तो कुंडली के अनुरूप यंत्र को विधिपूर्वक धारण करने से अरिष्ट का नाश हो जाता है । साथ ही कातरभाव से विधिपूर्वक इष्ट की पूजा भी की जाये , तो बड़े से बड़े रोग से भी मुक्ति संभव है। आवश्यकता है तो श्रद्धा की , तब भगवत्कृपा से क्या असंभव है?

महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत एवं वाग्भट्ट जिंहौने कि आयुर्वेद ग्रंथ लिखे , उनके अनुसार भी आयुर्वेद के मूल प्रवर्तक साक्षात भगवान ही है । अतः ऐसा कोई असाध्य रोग नहीं है, जिसमें कि आयुर्वेदिक औषधिया लाभ न करे। किन्तु आज के समय में देखा जाता है कि, लोग आयुर्वेदिक औषधियो का सेवन तो करते है किन्तु समुचित लाभ उन्हे दिखाई नहीं देता। उसका कारण है कि औषधिया , शास्त्र में निर्देशित विधि-विधान के अनुसार ही लाभ करती है। अर्थात उपयुक्त भूमि पर, उपयुक्त मुहूर्त में, पूर्ण सम्मान से उनको पैदा किया जाये, मन्त्रादि के प्रयोग से उनकी रक्षा की जाये। फिर शास्त्रीय-विधि से उनका पूजन करके, निमंत्रण देकर उन्हे लाया जाये, विधि से ही उनका निर्माण एवं रोगी के शरीर एवं ग्रहो की दृष्टि से उसके द्वारा प्रयोग की जाये, तो ये सर्वथा लाभदायक ही होती है। 

 
जब कि आज के समय में होता ये है कि सभी कंपनियो में कर्मचारी जो कि सब विधियो से अनभिज्ञ होते है, इन औषधियो का निर्माण करते है, अन्यथा व्यक्ति पंसारी की दुकान में जाता है, लिस्ट का सामान निकलवाकर , घर लाकर, कूट छान कर खा लेता है । इस प्रकार की औषधि कोई हानि न दे, किन्तु पर्याप्त मात्र में लाभ नहीं देती। 
 
जब कि विधि सहित रोपित, पालित और वेदमंत्रो द्वारा प्रार्थनापूर्वक तैयार की गयी औषधि निसंदेह अधिकाधिक लाभ प्रदान करती है। 
 
इसके साथ ही हमारे द्वारा एक बात पर, विशेष ध्यान दिया जाता है कि – अनेक रोग पापजनित भी होते है। जिनका कारण पूर्व या वर्तमान जन्म के कर्म होते है। ऐसे में इनका विशेषतः दो प्रकार से उपचार किया जाता है , पहला – दैवपाश्रय , दूसरा – युक्तिव्यपाश्रय। इसमें मंत्र,मणिधारण,नियम, प्रायिश्चित, पाठ, प्रणिपात आदि क्रियाओ का भी समावेश किया जाता है। इस प्रकार लौकिक एवं दैविक कारणो को देखते हुये, चिकित्सा की जाती है। वर्तमान समय के लगभग सभी आयुर्वेद दवाईया देने वाले अधिकांश वैद्य इसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते, जब कि असाध्य एवं मानसिक रोगो में इसी प्रक्रिया से लाभ पहुँचता है। 
 
आथर्वणी उपचार प्रक्रिया के अंतर्गत अथर्ववेद के मंत्रो के द्वारा जो औषधिया पूजित होती है, तभी विशेष लाभ पहुंचाती है। इसमें रोगी के और औषधि के संपर्क की आवश्यकता नहीं। दूसरी आंगिरसी औषधि – जिसमें , शास्त्रोक्त विधि से बनाई गयी औषधियो का सेवन रोगी को कराया जाता है । तीसरा – दैवीय औषधि – दैवीय कारणो से हुये रोग के कारणभूत दुर्दुष्ट के निवारणार्थ प्रक्रियाए की जाती है। इन विधानों से रोगी का दुर्दैव नष्ट होता है, अर्थात पाप विनष्ट होता है और रोग से मुक्ति में सहायता मिलती है। चौथी है मनुष्यजा – रोग से निवृत्ति हेतु कुछ सदव्यवहार एवं सामान्य नियमावली का पालन रोगी करता है । 
इन चार प्रकार के औषधीय प्रयोग से शत प्रतिशत रोग का निदान होता है । एवं पाप अत्यंत बलिष्ठ हो तब भी रोग पर नियंत्रण तो अवश्य ही प्राप्त होता है। 
 
जन्मांतरीय पापो से जो रोग होते है, उनका समग्र सम्पूर्ण विधि से उपचार न हो तो संसार में उस रोग को कोई समाप्त नहीं कर सकता । जैसे कि किसी व्यक्ति को मधुमेह होने का कारण अनियमित यौनाचार रहा है , तो जब तक इसका प्रायिश्चित नहीं किया जाएगा, रोग नियंत्रित नहीं होगा। 
 
 
कई रोग पूर्व जन्म के पापो से होते है – जैसा कि कहा गया है – 
 
पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये। बाधते व्याधिरूपेण तस्य जप्यादिभि: शम: ॥ 
 
जैसे कि पूर्व जन्म में किसी शिष्य ने गुरु को मारा हो अथवा अभद्र व्यवहार किया हो तो उसे मृगी रोग होता है, कहा गया है – प्रतिहंता गुरोरपस्मारी । अब अगर किसी के मृगी रोग का कारण यह है, तो वह जीवन भर औषधि खाता रहे, रोग समूल नष्ट नहीं होगा। किन्तु इसका निदान गोदान से होता है । व्यक्ति के रोग का मूल कारण समझते हुये औषधि के साथ अगर उसे गोदान करा दिया जाये, तो रोग का निदान हो जाता है। 
 
इसी प्रकार – सुरालये जले वापि शकृण्मूत्रम् गुदरोगो भवेत । मतलब किसी भी पूज्य स्थल , पुण्य जल या पवित्र स्थान पर किसी ने एक भी बार अगर मूत्र आदि का त्याग किया हो, उसे भगन्दर बवासीर अवश्य होगा। अक्सर देखा जाता है, नियमित तौर पर अच्छा खान पान रखने वाले व्यक्ति को भी ये रोग हो जाता है । अतः रोग के मूल कारण को समझते हुये , समग्र रूप से उसके उपचार से ही रोग का निदान होता है। 
 
इस प्रकार शास्त्रो में रोगो के कारण और उसके निदान भी बताए गए है , जिन्हे कि आज के समय उपचार करने वाले वैद्यो द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है एवं बिना किसी विधि से तैयार औषधि दे दी जाती है। जिसका कि नगण्य सा ही प्रभाव होता है ।
 
अर्थात चिकित्सा की सफलता इसमें होती है कि, व्यक्ति के ग्रह-नक्षत्रो की स्थिति को देखते हुये, उसे विधि से तैयार अभिमंत्रित औषधिया दी जाये साथ ही मूलरोग के कारण का ही निवारण कर दिया जाये। अधिक जानकारी के लिए आप हमसे संपर्क कर सकते है।