आयुर्वेद-चिकित्सा एवं ज्योतिष का विशेष सम्बन्ध है। यही कारण था कि पूर्वसमय में एक वैद्य को ज्योतिषीय ज्ञान होना अनिवार्य हुआ करता था। जिससे कि वह रोग की प्रकृति, रोग का प्रभाव क्षेत्र, रोग के प्रकट होने की अवधि तथा पूर्व या वर्तमान जन्म कृत पापो से उत्पन्न रोग आदि समग्र कारणो का भली-भांति विश्लेषण किया करता था। तथा उसी के अनुरूप औषधि देने से एवं रोग के मूल कारणो के उपाय आदि के करने से, रोगी को विशेष लाभ प्राप्त होता था। किन्तु आज के समय में दैवव्यपाश्रय चिकित्सा रोगी तक नहीं पहुँच पाती।
द्वादश राशियो, नवग्रहो, सत्ताईस नक्षत्रो के द्वारा व्यक्ति के रोग के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। जन्म चक्र में स्थित प्रत्येक राशि, ग्रह आदि शरीर के भिन्न भिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करते है। कई बार, जिस ग्रह के दूषित प्रभाव के कारण संबन्धित अंग पर रोग का प्रभाव रहता है। वहाँ ग्रहदान तथा जप आदि के द्वारा, सामान्य औषधि सेवन से, रोग का शमन हो जाया करता है।
जैसे कि , सप्तम भाव , तुला राशि , वायु तत्व ये गुर्दे, मूत्राशय, वस्ति, डिंब, गर्भाशय नलिकाओ आदि अंगो का बोध कराते है, इनसे संभावित रोग कमर दर्द, मधुमेह, पथरी , वृक्कशोथ आदि होते है। तो विधिपूर्वक औषधि के साथ ज्योतिषीय विश्लेषण , जन्मान्तरीय कारण विश्लेषण करते हुये , आयुर्वेद की त्रिविध उपचार पद्यति को अपनाया जाये तो , सामान्य की अपेक्षा कई गुना अधिक लाभ होता है।
जैसे कि अत्यंत मारक ग्रह की दशा हो और व्यक्ति केवल औषधि सेवन करता रहे तो उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। किन्तु यदि इस गणित को समझते हुये, विधिसहित औषधि के साथ साथ , लघुमृत्युंजय-जप किया या कराया जाये तो इससे मारक ग्रह शांत होता है, और औषधि का लाभ विशेषता से प्राप्त होने से , मृत्यु तक टल जाया करती है।
इसके अतिरिक्त यदि एक साथ कई ग्रहो का दूषित प्रभाव रोग की उत्पत्ति का कारण हो और बढ़ता जा रहा हो तो कुंडली के अनुरूप यंत्र को विधिपूर्वक धारण करने से अरिष्ट का नाश हो जाता है । साथ ही कातरभाव से विधिपूर्वक इष्ट की पूजा भी की जाये , तो बड़े से बड़े रोग से भी मुक्ति संभव है। आवश्यकता है तो श्रद्धा की , तब भगवत्कृपा से क्या असंभव है?
महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत एवं वाग्भट्ट जिंहौने कि आयुर्वेद ग्रंथ लिखे , उनके अनुसार भी आयुर्वेद के मूल प्रवर्तक साक्षात भगवान ही है । अतः ऐसा कोई असाध्य रोग नहीं है, जिसमें कि आयुर्वेदिक औषधिया लाभ न करे। किन्तु आज के समय में देखा जाता है कि, लोग आयुर्वेदिक औषधियो का सेवन तो करते है किन्तु समुचित लाभ उन्हे दिखाई नहीं देता। उसका कारण है कि औषधिया , शास्त्र में निर्देशित विधि-विधान के अनुसार ही लाभ करती है। अर्थात उपयुक्त भूमि पर, उपयुक्त मुहूर्त में, पूर्ण सम्मान से उनको पैदा किया जाये, मन्त्रादि के प्रयोग से उनकी रक्षा की जाये। फिर शास्त्रीय-विधि से उनका पूजन करके, निमंत्रण देकर उन्हे लाया जाये, विधि से ही उनका निर्माण एवं रोगी के शरीर एवं ग्रहो की दृष्टि से उसके द्वारा प्रयोग की जाये, तो ये सर्वथा लाभदायक ही होती है।